माथे की लकीरों में बसा है
तज़ुर्बा - ए -ज़िन्दग़ी
यूं ही नहीं बने हैं
ज़ुल्फ़-ए-सादगी ॥
ख़्वाहिशों से भरा घर
मुक़म्मल हो नहीं सकता
बहुत सी ठोकरें खाकर
सम्भला है ज़िन्दगी ॥
अरमान अपने भुलाकर ही
पाया है अपनों का प्यार
हसरतें अपनी छुपाकर ही
मिली है खुशियां हज़ार ॥
हम बे मुरव्वत मुरादबीं
अपने इरादों को मसलकर
अपनों में बसे अपनों की
अपनीयत ढूंढते है ॥
|
---|
फ़ॉलोअर
जुलाई 02, 2016
माथे की लकीरों में
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
-
मै नदी हूँ ............. पहाड़ो से निकली नदों से मिलती कठिन धरातल पर उफनती उछलती प्रवाह तरंगिनी हूँ ...
-
मेरे घर के आगे है पथरीली ज़मीन हो सके तो आओ इन पत्थरों पर चलकर पूनम की चाँद ने रोशनी की दूकान खोली है खरीद लो रोशनी ज़िंदगी रोशन कर ल...
-
मेरी ख़ामोशी का ये अर्थ नही की तुम सताओगी तुम्हारी जुस्तजू या फिर तुम ही तुम याद आओगी वो तो मै था की जब तुम थी खडी मेरे ही आंग...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें