कविता
ज़िन्दगी की तारीखें तो पहले से ही तय है हमें तो बस उन तारीखों में जिए जाना है
अक्तूबर 24, 2019
अप्रैल 09, 2018
सादगी ए ज़िन्दगी...
मैंने इस सादगी ए ज़िन्दगी से पल्ला झाड़ लिया
ज़िन्दगी की सच्चाई ने मुझमें कटुता भर दिया
जिस किरदार को हमने बड़े मासूमियत से संजोया
उसकी बचपने में लोगों ने जहर है घोल दिया
बड़ी इत्मिनान की नींद कभी सोया करते थे हम
नींद की गलियारे में कभी सरपट दौड़ा करते थे हम
मन के किसी कोने में गर अंधेरा छा जाता था कभी
अपने बुलन्द हौसलों से रोशनी भर देते थे हम
अब तो घर में कोई नसीहत देने वाला भी नहीं रहा
बड़े-बूढ़ों का साया भी सर के ऊपर से निकल गया
कोशिश कर रहा हूँ इस दुनिया की गहराई को नाप लूँ
ऊपरवाले की कारीगरी की मीन मेख पहचान लूँ
लगता है इसी ऊहापोह में ये ज़िन्दगी भी गुज़र जाएगी
कि कत्ले सादगी-मासूमियत से ज़िंदगी सँवर जाएगी
मार्च 16, 2018
समझदार हो चला.....
कभी समंदर तो कभी दरिया बन के
कभी आग तो कभी शोला बन के
ज़रूरतमंदों ने खूब गले लगाया था मुझे
काम आया हूँ मैं जाने कैसे कैसे उनके
पर अब मैं जो थोड़ा स्वार्थी बन गया हूँ
उन्हें नश्तर की तरह अब मैं चुभ रहा हूँ
सुनना छोड़ दिया जब से उनका दर्दे फ़साना
तेवर उनके हो गए तल्ख़ अब गया वो ज़माना
खुदगर्ज़ बन के ही सही दिल को सुकूँ खूब मिला
बड़ा नादाँ था ये दिल परअब समझदार हो चला
नवंबर 12, 2017
शून्य काल
शून्य का मैं ओज हूँ
शून्य के रथ पर सवार
शून्य का मैं आज हूँ
शून्य का कपाट हूँ
शून्य सा विराट हूँ
शून्य सा ही क्षुद्र मैं
शून्य का ललाट हूँ
अवसाद में है शून्यता
विषाद में है शून्यता
प्रसन्नता में शून्यता
विपन्नता में शून्यता
शून्य मेघ का गरज
शून्य विद्युत सा लरज
शून्य सूर्य सा है तप्त
शून्य चंद्र सा है सर्द
शून्य सा प्रखर हूँ मैं
शून्य का शिखर हूँ मैं
शून्य सा हूँ मापदण्ड
शून्य सा मुखर हूँ मैं
शून्य का शिखर हूँ मैं
शून्य सा हूँ मापदण्ड
शून्य सा मुखर हूँ मैं
शून्य का अलाप हूँ
शून्य का विलाप हूँ
शून्य का हूँ शब्दरूप
शून्य का संलाप हूँ
शून्य का हूँ शब्दरूप
शून्य का संलाप हूँ
रात्रि शून्य में विलय
शून्य शनि का वलय
तारकों में टिमटिमाता
प्रकाश का महाप्रलय
शून्य शनि का वलय
तारकों में टिमटिमाता
प्रकाश का महाप्रलय
शून्य में है स्तब्धता
शून्य में है क्षुब्धता
शून्य को विराम दो
कि शून्य में है गत्यता
शून्य मार्ग प्रशस्त कर
बाधाएं निरस्त कर
शत्रु को शिकस्त दे तू
धर्म को तदर्थ धर
शून्य में है क्षुब्धता
शून्य को विराम दो
कि शून्य में है गत्यता
शून्य मार्ग प्रशस्त कर
बाधाएं निरस्त कर
शत्रु को शिकस्त दे तू
धर्म को तदर्थ धर
आओ शून्य में चलें
आओ शून्य में ढलें
शून्य के आकाश में
हम ह्रस्व-दीर्घ पग भरें
आओ शून्य में ढलें
शून्य के आकाश में
हम ह्रस्व-दीर्घ पग भरें
नवंबर 09, 2017
हद है
अश्कों को आँखों का ठौर पसन्द नहीं
उसे पूरी दुनिया से है वास्ता, हद है
कर भी लूँ नींदों से वाबस्ता
ख़्वाब बन जाता है हरजाई हद है
रिंदो साक़ी ने झूम के पिलाया जो
घूँट पानी का न उतरा हद है
कर ली खूब मेहमाननवाज़ी भी हमने
हुए फिर भी बदनाम हद है
हुए फिर भी बदनाम हद है
दो दिन ज़िन्दगी के चांदनी के चार दिन
बाकी ज़िन्दगी है सियापा हद है
ताश के पत्ते मानिंद बिखर जाता है घर
जो न सम्भाला तिनका भी हद है
कर ली थी मैंने इश्क़ से तौबा
उफ़्फ़ तेरी ये आंखें हद है
ये दिल भी बड़ा कमज़र्फ निकला
जान के भी इश्क़ ए दस्तूर हद है
सितंबर 18, 2017
किस्से बयाँ न हो पाता...
सारे किस्से बयाँ न हो पाता कभी
दिल के कब्र में हजार किस्से दफ़्न हैं
इतने करीब भी न थे कि बुला पाऊँ तुम्हें
इतने दूर भी न थे कि भुला पाऊँ तुम्हें
पुराने जख्मों से मिल गयी वाहवाही इतनी
कि अब उसे नये जख्मों की तलाश है
मेरी चाहत है मैं रातों को रोया न करूं
या रब मेरी इस चाहत को तो पूरा कर दे
कई नाम मौजूद है इस दिले गुलिस्तान में
धड़क जाता है दिल ये बस तुम्हारे नाम से
मैं कुछ इस तरह ग़म की आदत से तरबतर
कि ग़म होगा गर ख़ुशी आये मिलने मुझसे
सितंबर 13, 2017
ख्वाव तेरे किरचियाँ बन ...
ख़्वाब तेरी किरचियाँ बन आँखों को अब चुभने लगी
गम की आँधियाँ इस तरह ख्वाबों के धूल उड़ा गए
मंज़िल पास थी रास्ता साफ था दो कदम डग भरने थे
गलतफहमी की ऐसी हवा चली सारे रास्ते धुंधला गए
बड़े शिद्दत से फूलों में बहार-ए-जोबन आयी थी
वक्त के साथ मिरे गजरे के सारे फूल मुरझा गए
मुहब्बत का दम भरने को दिल ने न चाहा फिर भी
बादल,चाँद, सितारे आँखों के आगे लहरा गये
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