पिघलते क़तरों में जो लम्हा है जीया
उन लम्हों की क़सम मैंने ज़हर है पीया -
कोई वादा नहीं था इक़रार-ए-बयाँ का
कानों से उतर के वो दिल में बसा था ॥
अश्क़ों से लबालब ये वीरान सी आँखें
ग़म की ख़ुमारी और बोझल सी रातें -
दीदार-ए-यार कभी सुकूँ-ए-दिल था
देके दर्दे इश्क़ तेरे साथ ही चला था ॥
नालिश जो थी तेरे लिए तेरे ही खातिर
बयाँ न हो पाया वो अहसास गुज़र गया -
दरों दीवार जो दो दिलों का था आशियाना
मजार-ए-इश्क़ आज वहीँ पे दफ़न है ॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें