अकेला ये मन सोचे हरदम
सुख-दुख का झमेला जीवन
मारे दंश फिर भी सहे जाये
यह ही है हृदय का दमखम ।।
नहीं कोई मरहम समय अति निर्मम
खारे आँसू भी न करे दर्द कम
मन बहलाने को जीते है हम
देख कर ये धरा-प्रकृति का संगम ।।
आह! मुख से न निकले है कभी
मनुष्य है...ऐसे ही जीते है सभी
दुःख-सुख है पहिया जीवन का
जान लिया है दिल ने जी रहे है जब ही।।
पशु-पक्षी औ इस धरा के प्राणी
गत जीवन मे रची है कहानी
विकार नहीं संवेदना है ये
है हमने भी अब जीने की ठानी ।।
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मार्च 22, 2014
जीवन कथा
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (23-03-2014) को इन्द्रधनुषी माहौल: चर्चा मंच-1560 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जवाब देंहटाएंअभ्यास वश जीना भी क्या जीना है ?
कल 24/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
जीवन एक संघर्ष है. सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब!
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