कभी दिन में देखा है चाँद
फीका सा
एक बुझा हुआ दीपक
सरीखा सा
काश इन परिंदों सा
उड़ पाऊँ
चन्दा को धरती पर
ले आऊँ
मल-मल कर चमकाऊँ
बुझे तन को
खिली चांदनी से पावन
करे जग को
जाने क्यों सोचे ये
पागल मन
रिश्ता है चन्दा से
शायद कोई पुरातन
फीका सा
एक बुझा हुआ दीपक
सरीखा सा
काश इन परिंदों सा
उड़ पाऊँ
चन्दा को धरती पर
ले आऊँ
मल-मल कर चमकाऊँ
बुझे तन को
खिली चांदनी से पावन
करे जग को
जाने क्यों सोचे ये
पागल मन
रिश्ता है चन्दा से
शायद कोई पुरातन
हम तो कहेगे की जैसा भी रिश्ता हो मगर चाँद के साथ ये रिश्ता है बड़ा अनोखा....
जवाब देंहटाएंशब्दों की बेहतरीन जादुगरी। आभार।
जवाब देंहटाएंजाने क्यों सोचे ये
जवाब देंहटाएंपागल मन
रिश्ता है चन्दा से
शायद कोई पुरातन..
सही कहा है..चंदा मामा से परिचय तो जन्म लेते ही हो जाता है और उसकी तलाश जिंदगी भर कभी प्रेयसी के चहरे के रूप में कभी अपना दर्द सुनाने के लिए होती रहती है. बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
कभी दिन में देखा है चाँद फीका सा
जवाब देंहटाएंएक बुझा हुआ दीपक सरीखा सा
बेहतर
I really enjoyed reading the posts on your blog.
जवाब देंहटाएंहर बार अलग ही रूप में नज़र आता है. चाँद अच्छी प्रस्तुती
जवाब देंहटाएंअना जी,
जवाब देंहटाएंएक अच्छी कविता से होकर गुजरा......असर कुछ और देर बना रहेगा।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
कवितायन
sundar vichar-kavita ke liye badhai.
जवाब देंहटाएंकाश इन परिंदों सा
जवाब देंहटाएंउड़ पाऊँ
चन्दा को धरती पर
ले आऊँ
काश....पंख होते...
सुंदर
कविता बहुत सुन्दर और भावपूर्ण है। बधाई।
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