रेत से घर नहीं बनता पानी में ख्वाव नहीं बहते मन के अन्तर्निहित गहराई किसी पैमाने से नहीं नपते नए कोपलों में दिखता है पौधों की हरियाली की चाहत फूलों से भरी है गुलशन पर कलिओं को खिलने से नहीं राहत देह के नियम है अजीब थकता नहीं है सांस लेने में नींद में बुनते है ख्वाब सारे उम्मीदें टूटती है खुले आँखों से चराचर प्रकृति का नियम यही विरोधाभास सृष्टि का चलन है जो प्रवाह करे शिला खंड-खंड वो प्रवाहिनी नीर जीवन है समय के काल-खंड में जाने कौन सा रहस्य है छुपा कितने ही रंगों और ऋतुओं से धरित्री तुम हो अपरूपा |
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अक्तूबर 05, 2014
रेत से घर नहीं बनता..........
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हमने रखे हैं नक्शे पा आसमां के ज़मीं पर अब ज़मीं को आसमां बनने में देर न लगेगी टांग आयी हूँ सारे ग़म दरो दीवार के खूंटी पर अब वफ़ाओं...
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तूने दिखाया था जहां ए हुस्न मगर मेरे जहाँ ए हक़ीक़त में हुस्न ये बिखर गया चलना पड़ा मुझे इस कदर यहाँ वहाँ गिनने वालों से पाँव का छाला न गिना गय...
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ये धूप की बेला ये छांव सी ज़िन्दगी न चांदनी रात न सितारों से दिल्लगी जमी हूँ मै शिला पर - बर्फ की तरह काटना है मुश्किल...
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