तुम अनन्या तुम लावण्या तुम नारी सुलभ लज्जा से आभरणा तुम सहधर्मिनी तुम अर्पिता तुम पूर्ण नारीश्वर गर्विता तुम ही पुरुष की चिरसंगिनी तुम सौन्दर्य बोध से परिपूर्णा तुम से ही धरित्री आभरणा तुमसे सजी है दिवा औ'यामिनी शिशु हितार्थ पूर्ण जगत हो तुम गृहस्थ की परिपूर्णता हो तुम जननी रूप मे तुम निर्मला कभी कठोर पाषाण हृदय से रंजित कभी करूणामयी हृदय विगलित कभी हुंकारित रण-वीरांगना हे नारी!! तुम ही सृष्टिकर्ता तुमसे ही सम्भव पुरुष-प्रकृति वार्ता ©अनामिका |
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अप्रैल 08, 2014
नारी!! तुम ही....
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हमने रखे हैं नक्शे पा आसमां के ज़मीं पर अब ज़मीं को आसमां बनने में देर न लगेगी टांग आयी हूँ सारे ग़म दरो दीवार के खूंटी पर अब वफ़ाओं...
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तूने दिखाया था जहां ए हुस्न मगर मेरे जहाँ ए हक़ीक़त में हुस्न ये बिखर गया चलना पड़ा मुझे इस कदर यहाँ वहाँ गिनने वालों से पाँव का छाला न गिना गय...
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कदम से कदम मिलाकर देख लिया आसान नहीं है तेरे साथ चलना तुझे अपनी तलाश है मुझे अपनी मुश्किल है दो मुख़्तलिफ़ का साथ रहना यूँ तो तू दरिया और ...
पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ। आना सफल रहा। लाजवाब कविता के लिए बधाई स्वीकार करें।
जवाब देंहटाएंनारी के विभिन्न रूपों को दर्शाती सुंदर प्रस्तुति।।।
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