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हमने रखे हैं नक्शे पा आसमां के ज़मीं पर अब ज़मीं को आसमां बनने में देर न लगेगी टांग आयी हूँ सारे ग़म दरो दीवार के खूंटी पर अब वफ़ाओं...
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तूने दिखाया था जहां ए हुस्न मगर मेरे जहाँ ए हक़ीक़त में हुस्न ये बिखर गया चलना पड़ा मुझे इस कदर यहाँ वहाँ गिनने वालों से पाँव का छाला न गिना गय...
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ये धूप की बेला ये छांव सी ज़िन्दगी न चांदनी रात न सितारों से दिल्लगी जमी हूँ मै शिला पर - बर्फ की तरह काटना है मुश्किल...
Pyari aur chhoti nazm.
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना!
जवाब देंहटाएंbahut gahri baat....achchi lagi.
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबधाई ।।
बहुत सुन्दर वाह!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 23-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-851 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
सुंदर भाव...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंकश्ती को ये बात कौन बताये जालिम
जवाब देंहटाएंना दरिया अपनी न किनारा अपना.
बहुत सुंदर गज़ल.