तो उस पार मैं खड़ा था इस पार तुम थी- शायद मैं इस इंतज़ार में था कि ये दाग मिट जाए पर हो न सका !! शायद तुम इस फ़िराक में थी कि ये दाग पट जाए तो लांघने की नौबत न आये पर लम्हों को इन हरकतों का इल्म पहले से था शायद दाग गहराते चले गए और एक दूजे का हाथ पकड़ न पाये !! अब भी लकीर के इस पार लम्हा यूं ही मूंह बांयें खड़ा है वक़्त के दाग को थामे हाथ पसारे अड़ा है मेरे कदम जमे है उन्हीं लकीरों को पाटती हुई कहीं वो मेरे इंतज़ार में- मिल जाएगी जागती हुई लम्हों से गुज़ारिश है ये बता दे की वो कहाँ मारेगी ? जुनूँ - ए -ज़िन्दगी जीतेगी या वक़्त हारेगी !!!! |
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अप्रैल 07, 2015
लम्हा जब लकीरों में बंटा.......
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