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जुलाई 15, 2011

मन पंछी...


मन पंछी क्यों चाहे 
फुर-फुर-फुर उड़ जाऊं 
बैठूं उस बादल में 
सूरज को धर लाऊँ 

काली रात न आये 
दिन ही दिन छा जाए 
मन की कालिमा पर 
धूप ही धूप भर जाए 

दिन का उजाला तो 
मन के कालेपन को 
तिल-तिल कर छाटेगा
विश्वास है इस मन को 

मन फिर भी ये सोचे 
गर रात फिर न आये 
दिन की ज़रुरत को 
कैसे समझ पाए 

दिन-रात बहाना है 
जग को बताना है 
एक दूजे के बिन ये 
सब कुछ बेगाना है 



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