मन पंछी क्यों चाहे फुर-फुर-फुर उड़ जाऊं बैठूं उस बादल में सूरज को धर लाऊँ काली रात न आये दिन ही दिन छा जाए मन की कालिमा पर धूप ही धूप भर जाए दिन का उजाला तो मन के कालेपन को तिल-तिल कर छाटेगा विश्वास है इस मन को मन फिर भी ये सोचे गर रात फिर न आये दिन की ज़रुरत को कैसे समझ पाए दिन-रात बहाना है जग को बताना है एक दूजे के बिन ये सब कुछ बेगाना है |
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जुलाई 15, 2011
मन पंछी...
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कदम से कदम मिलाकर देख लिया आसान नहीं है तेरे साथ चलना तुझे अपनी तलाश है मुझे अपनी मुश्किल है दो मुख़्तलिफ़ का साथ रहना यूँ तो तू दरिया और ...
एक की महत्ता का भान दूसरा दिलाता है |
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी रचना ....
जवाब देंहटाएंbhut hi khgubsurat rachna...
जवाब देंहटाएंरात और दिन दोनों का बराबर महत्व है।
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना।
बहुत अच्छी लगी यह कविता।
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