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जुलाई 08, 2011

प्रकृति


जो घूमती है ये धरा
तो है दिन रात का माजरा 
है चाँद की सोलह कला
है सूर्य से रोशन धरा 

शीतल जो ये बहे बयार 
गुंजरित है ये बहार 
कलियाँ जो है अधखिली 
प्रस्फुटित करे बयार 

शीत ऋतू तो है दबंग 
काँप जाए अंग अंग 
सूर्य और चन्द्रमा भी 
ताप ला न पाए संग 

ग्रीष्म भी है चंचला 
लू चलाये मनचला
उत्ताप-ताप से भरा है 
तप्त दिन औ रात गला 

वृष्टि भी तो है अजब 
हो अमीर या गरीब 
स्नेह-धार से भिगोये 
चल न पाए तरकीब 

दिन-रात ये मौसम 
चले ये साथ,औ हम 
भी साथ-साथ चले 
अद्भुत प्रकृति-मानव संगम 






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