जो घूमती है ये धरा
तो है दिन रात का माजरा
है चाँद की सोलह कला
है सूर्य से रोशन धरा
शीतल जो ये बहे बयार
गुंजरित है ये बहार
कलियाँ जो है अधखिली
प्रस्फुटित करे बयार
शीत ऋतू तो है दबंग
काँप जाए अंग अंग
सूर्य और चन्द्रमा भी
ताप ला न पाए संग
ग्रीष्म भी है चंचला
लू चलाये मनचला
उत्ताप-ताप से भरा है
तप्त दिन औ रात गला
वृष्टि भी तो है अजब
हो अमीर या गरीब
स्नेह-धार से भिगोये
चल न पाए तरकीब
दिन-रात ये मौसम
चले ये साथ,औ हम
भी साथ-साथ चले
अद्भुत प्रकृति-मानव संगम
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जुलाई 08, 2011
प्रकृति
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achhi abhivyakti
जवाब देंहटाएंnature is supreme .good explanation .thanks
जवाब देंहटाएंकविता बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंvery nice poem! nature is supreme well said is why not you are very bad girl yes this thing is true
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंसुन्दर
http://saxenamadanmohan.blogspot.in/