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नवंबर 15, 2013

शाश्वत और साकार .........

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एक मुट्ठी धूप पसरा है छत पर
सोचती हूँ बादल का कोइ टुकड़ा ;
गर ढक ले इस सुनहरे धूप को,
तो क्या आँच आएगी इस आँच को !!

आभास हुआ ......
बादल तो नटखट है
उड़ जाएगा हवा के साथ
अटखेलियां  करता हुआ
पर धूप से बादल की मित्रता तो क्षणिक है,,
वायु  और घन का साथ प्रामाणिक है ;
अस्तित्व धूप का निर्विकार है,
जीवन रस सा शाश्वत और साकार है

धूप का आवागमन निर्बाध है
ग्रहण से क्षणिक साक्षात्कार है,
बस यूँ ही सृष्टि का चलाचल है
धूप, बादल, ग्रहण इसी का फलाफल है ।।















  

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