एक मुट्ठी धूप पसरा है छत पर
सोचती हूँ बादल का कोइ टुकड़ा ;
गर ढक ले इस सुनहरे धूप को,
तो क्या आँच आएगी इस आँच को !!
आभास हुआ ......
बादल तो नटखट है
उड़ जाएगा हवा के साथ
अटखेलियां करता हुआ
पर धूप से बादल की मित्रता तो क्षणिक है,,
वायु और घन का साथ प्रामाणिक है ;
अस्तित्व धूप का निर्विकार है,
जीवन रस सा शाश्वत और साकार है
धूप का आवागमन निर्बाध है
ग्रहण से क्षणिक साक्षात्कार है,
बस यूँ ही सृष्टि का चलाचल है
धूप, बादल, ग्रहण इसी का फलाफल है ।।
सुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंबधाइयाँ
बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट मन्दिर या विकास ?
नई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ
बढ़िया रचना , आदरणीय अना जी धन्यवाद
जवाब देंहटाएंनया प्रकाशन --: प्रश्न ? उत्तर -- भाग - ६
" जै श्री हरि: "
Bahut khoob likha hai Vivek. Happy writing
जवाब देंहटाएंMere blog www.kaultribhawan.blogspot.com par aap amantarit hain. Danyavaad.