मैं जिंदा हूँ
अन्याय का खिलाफत मैं कर नहीं पाता
कुशासन-सुशासन का फर्क समझ नहीं पाता
प्रदूषित हवा में सांस लेता हूँ
पर मैं जिंदा हूँ
सरकारी तंत्र से शोषित हूँ मैं
बिना सबूत आरोपित हूँ मैं
खुद को साबित मैं कर नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
दिल से चीत्कार उठती है
मन में हाहाकार मचती है
होंठों से कोई शब्द निकल नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
रक्त में उबाल अब भी है
भावनाओं में अंगार अब भी है
बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से
काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से
नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,
एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति , बधाई.
जवाब देंहटाएंरक्त में उबाल अब भी है
जवाब देंहटाएंभावनाओं में अंगार अब भी है
बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
jo kunthaaon ko janm de raha
उफ़ आम आदमी की विवशता का सटीक चित्रण किया है।
जवाब देंहटाएंsarthak abhivaykti...
जवाब देंहटाएंहरेक पंक्ति बहुत मर्मस्पर्शी है। कविता अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंसंजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
पर आपका स्वागत है
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
मर्मस्पर्शी और भावनात्मक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंGyan Darpan
RajputsParinay
इसी विवशता से जब संकल्प जन्मेगा तब जीवन सार्थक होगा!
जवाब देंहटाएंआज के परिवेश का सटीक चित्रण...
जवाब देंहटाएं***punam***
bas yun..hi...
tumhare liye...
सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमन के भीतर के भावों का बेहतरीन चित्रण।
सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंभावों का बेहतरीन चित्रण।
इंसान कितना विवश है ... चाहते हुवे भी कुछ कर नहीं पाता इस तंत्र में ... सही लिखा है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर शब्दों द्वारा अच्छी अभिव्यक्ति की है. पढकर लगा मेरी ही परिस्थितियों पर लिखी गई है. आप बेशक मेरी स्थिति को मेरे ब्लोगों को पढकर अनुभव किया जा सकता है. बस थोड़ा-सा अंतर है, अपनी लेखनी से जितना हो सकता है. उतना अन्याय का विरोध जरुर कर रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंमैं जिंदा हूँ
अन्याय का खिलाफत मैं कर नहीं पाता
कुशासन-सुशासन का फर्क समझ नहीं पाता
प्रदूषित हवा में सांस लेता हूँ
पर मैं जिंदा हूँ
सरकारी तंत्र से शोषित हूँ मैं
बिना सबूत आरोपित हूँ मैं
खुद को साबित मैं कर नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
दिल से चीत्कार उठती है
मन में हाहाकार मचती है
होंठों से कोई शब्द निकल नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
रक्त में उबाल अब भी है
भावनाओं में अंगार अब भी है
बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से
काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से
नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,
एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
रक्त में उबाल अब भी है
जवाब देंहटाएंभावनाओं में अंगार अब भी है
यकीनन यह जिन्दा होने का प्रमाण है
aam insan ki vivshta bakhoobi vyakt hui hai..
जवाब देंहटाएंक्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से
जवाब देंहटाएंकाश मन जागृत हो कोई मन्त्र से
नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,
एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ ..
आम आदमी की बेबसी का बयां करती भावपूर्ण अभिव्यक्ति .सादर!!
श्रीप्रकाश डिमरी
संदेषपूर्ण व यथार्थपरक कविता ।
जवाब देंहटाएंsartajk rachna ke liye aabhar
जवाब देंहटाएंरक्त में उबाल अब भी है
जवाब देंहटाएंभावनाओं में अंगार अब भी है
बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता
आपकी कविताओं में ओज रस है ....
जागृत स्वर .....
मकर संक्रांति की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
जवाब देंहटाएं----------------------------
आज 15/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सुंदर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंBAS THODA HI DOOR HO....MANZIL SE....THODI SI HIMMAT KAR LO....FIR SACHHE MAAYNO ME JINDA RAHOGE.
जवाब देंहटाएंSUNDER SATEEK PRASTUTI.
क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से
जवाब देंहटाएंकाश मन जागृत हो कोई मन्त्र से
नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,
एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
vah bahut hi sundar kriti shukl ji ....badhai ke sath abhar.