दिग्भ्रमित सी दिशाएँ है छाया कुहासा चारों और दीपशिखा को कुचला किसने धुआं का कहीं न और छोर अन्धतम इतनी गहराई ज्योत भी मंद पड़ गया बुझ गया दीपक था जिसमे तेल--जीवन बह गया वायु में है वेग इतना नाव भी भटके है मार्ग मंझधार में है या किनारे या भंवर में फंसा है नाव ईश से है ये गुजारिश भाग्य में लिख दे यही विपद से रक्षा नहीं ! मांगू मैं न डरने की सीख |
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अक्टूबर 27, 2011
दिग्भ्रमित सी दिशाएँ
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ख़्वाब तेरी किरचियाँ बन आँखों को अब चुभने लगी गम की आँधियाँ इस तरह ख्वाबों के धूल उड़ा गए मंज़िल पास थी रास्ता साफ था दो कदम...
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हमने रखे हैं नक्शे पा आसमां के ज़मीं पर अब ज़मीं को आसमां बनने में देर न लगेगी टांग आयी हूँ सारे ग़म दरो दीवार के खूंटी पर अब वफ़ाओं...
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तू है वक़्त गुज़रा हुआ मुरझाया फूल किताबों में रखा तुझे न याद करूँ एक पल से ज्यादा कि दिल में तू नहीं अब कोई और है तुम से खिला क...
मैं मांगू न डरने की सीख ..
जवाब देंहटाएंबढिया प्रस्तुति !!
सुन्दर!
जवाब देंहटाएंbhaut hi khubsurat....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहालात का दिग्दर्शन
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंway4host
RajputsParinay
खुबसूरत प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंआभार|
शुभकामनायें ||
बहुत सुन्दर उम्दा रचना है ...
जवाब देंहटाएंbahut sundar bhaav purn abhivyakti....saadar !!!
जवाब देंहटाएंखूबसुरती से लिखी गई भाव पूर्ण सुंदर रचना,बढ़िया पोस्ट...बधाई
जवाब देंहटाएंदीवाली की व्यस्तता में कई दिनों के बाद समय मिला.... शुभकामनाएं....आपको परिवार समेत....!!
जवाब देंहटाएं***punam***
bas yun...hi..
tumhare liye...