तनहा ज़िन्दगी में गुजर बसर करते है काफिले के साथ भी तनहा-तनहा चलते है दिन में भीड़ करती है मुझे परेशान रात को तन्हाई में भी सोया नहीं करते है परछाईं को देख मैं हूँ इस कदर हैरां गुजरी उम्र ...हम अकेले चला करते है रात का सन्नाटा आवाज़ देती है मुझे जाऊं कैसे हम तो तन्हाई में डूबे रहते है |
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अक्तूबर 07, 2011
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हमने रखे हैं नक्शे पा आसमां के ज़मीं पर अब ज़मीं को आसमां बनने में देर न लगेगी टांग आयी हूँ सारे ग़म दरो दीवार के खूंटी पर अब वफ़ाओं...
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तूने दिखाया था जहां ए हुस्न मगर मेरे जहाँ ए हक़ीक़त में हुस्न ये बिखर गया चलना पड़ा मुझे इस कदर यहाँ वहाँ गिनने वालों से पाँव का छाला न गिना गय...
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कदम से कदम मिलाकर देख लिया आसान नहीं है तेरे साथ चलना तुझे अपनी तलाश है मुझे अपनी मुश्किल है दो मुख़्तलिफ़ का साथ रहना यूँ तो तू दरिया और ...
सुन्दर रचना सुन्दर अभिव्यक्ति ,बधाई .
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर भी पधारें .
Nice post.
जवाब देंहटाएंsundar bhavapoorn rachana ...abhaar
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव समन्वय
जवाब देंहटाएंगहरे भाव।
जवाब देंहटाएंआभार।
सुन्दर रचना सुन्दर अभिव्यक्ति ,बधाई .
जवाब देंहटाएंबढ़िया भावपूर्ण अभिव्यक्ति ....
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना....
जवाब देंहटाएंपरछाईं को देख मैं हूँ इस कदर हैरां
जवाब देंहटाएंगुजरी उम्र ...हम अकेले चला करते है
वाह! बहुत सुन्दर रचना....
सादर बधाई...
रात का सन्नाटा आवाज देती है मुझे
जवाब देंहटाएंजाऊं कैसे हम तो तन्हाई में डूबे रहते है
सुंदर भावपूर्ण ग़ज़ल।
परछाईं को देख मैं हूँ इस कदर हैरां
जवाब देंहटाएंगुजरी उम्र ...हम अकेले चला करते है
........गहरे अहसास की कविता
सुंदर भावमयी रचना.
जवाब देंहटाएंatisunder..bhaavnaon ki abhivyakti.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंbahut khub......gahare bhav
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