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जून 24, 2011

जल रही.....

जल रही है धरती 
जल रहा है गगन 
                        आग उगल रही है 
                       ज़मीं और पवन 
झुलसाती है धूप
तरसाती है पानी 
                            ये गरमी भी ना जाने 
                           लेंगी कितनी जानें
लू के थपेड़ों ने 
बरपा रखी है आग 
                         सूरज की किरणे भी 
                           जला रही है गात 
दिन गिनते पल बीते 
आस वर्षा-आगमन की 
             समय है नेह बरसने का 
             औ बुझ जाए तपन धरा की 

20 टिप्‍पणियां:

  1. इधर भी परेशानी थी
    पर सुखांत --

    नेह-निमंत्रण
    परसे* नैना | *परोसना
    जन्म-जन्म के
    करषे* नैना | | *आकर्षित

    प्रियतम को अब
    तरसे नैना |
    कितने लम्बे-
    अरसे नैना ||

    हौले - हौले
    बरसे नैना |
    जाते अब तो
    मर से नैना ||

    अब आये क्यूँ
    घर से नैना |
    जरा जोर से
    हरसे नैना ||

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढ़िया और शानदार रचना ! बेहतरीन प्रस्तुती!
    टिप्पणी देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  3. फिर से भर आये बदरा फिर बरसेगा पानी
    आ गयी फिर रुत वो सावन की फिर हो गयी कोई आपने सजन की दीवानी....

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर है बहन जी ....एक परिपूर्ण अभिव्यक्ति
    मेरे ब्लॉग पर भी पधारे

    जवाब देंहटाएं
  5. सच है अब तो बरस ही जाना चाहिए इस बारिश को ...

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर रचना प्रस्तुति....आभार

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत बढ़िया कविता ....आभार

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत भावभीनी प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत ही सुंदर कविता !
    ...और बहुत ही गहरे भाव !

    जवाब देंहटाएं

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