बस्तों के बोझ तले दबा हुआ बचपन
बसंत में भी खिल न पाया ये बुझा हुआ बचपन
बचपन वरदान था जो कभी अति सुन्दर
पर अब क्यों लगता है ये जनम - जला बचपन
अपनों से ही पीड़ित क्यों है आज बचपन
ये देन है किस सभ्यता का क्यों खो गया वो बचपन
वो नदियों सा इठलाना चिड़ियों सा उड़ना
वो तितलियों के पीछे वायु वेग सा दौड़ना
वो सद्य खिले पुष्पों सा खिलना इठलाना
वो रह पर पड़े हुए पत्थरों से खेलना
कहाँ है वो बचपन जो छूटे तो पछताए
क्यों है वो परेशां ये बचपन छटपटाये
खिलने से पहले ही मुरझाता ये बचपन
ये शोषित ये कुंठित ये अभिशप्त बचपन
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धन्यवाद. आपके चिट्ठे को देखा. कविताओं के कथ्य अच्छे हैं. कुछ ध्यान लय, भाषा-प्रवाह और पद भर पर दें तो अभिव्यक्ति अधिक प्रभावी होगी. दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम पर पधारिये-जुड़िये.
जवाब देंहटाएंbahut sundar abhivyakti...हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएं________________________
'शब्द-शिखर' पर ब्लागिंग का 'जलजला'..जरा सोचिये !!
कुचले हुए बचपन से बड़ा कोई अभिशाप नहीं.. अब चाहे बस्ते के बोझ से दबा हो, या पढने की उम्र में घर के बोझ से कुचला बचपन.. सचाई दर्शाती हुयी कविता..
जवाब देंहटाएंbahut sunder bhav hain. hum aksar apne aas paas is tarah ka bachpan dekh rahe hain ..........par aapne inhe apne shabdon me piro diya hai.
जवाब देंहटाएंyahi to hai sahi shabdo mai abhivyakti.aapaki kavita padhkar film taare jameen par ki yaad aa gayi.aaj ke bacchon ki halat dekhkar yahi lagata hai ki kho na jaye ye taare jameen par.
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