कभी समंदर तो कभी दरिया बन के
कभी आग तो कभी शोला बन के
ज़रूरतमंदों ने खूब गले लगाया था मुझे
काम आया हूँ मैं जाने कैसे कैसे उनके
पर अब मैं जो थोड़ा स्वार्थी बन गया हूँ
उन्हें नश्तर की तरह अब मैं चुभ रहा हूँ
सुनना छोड़ दिया जब से उनका दर्दे फ़साना
तेवर उनके हो गए तल्ख़ अब गया वो ज़माना
खुदगर्ज़ बन के ही सही दिल को सुकूँ खूब मिला
बड़ा नादाँ था ये दिल परअब समझदार हो चला
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंजी बहुत शुक्रिया
हटाएंKya aap mujhe bta skte hai...
जवाब देंहटाएंProfessional poetry kaise start kru ...
Starting line Kya ho skti h....
Reply me...
बेहतरीन रचनाओं का संकलन
जवाब देंहटाएं' कभी समुन्दर बनके तो कभी दरिया बनके' बहुत ही लाजवाब कविता है ।
जवाब देंहटाएं