हर घड़ी में खुद को #व्याप्त रखती हूं
मैं #नाव हूँ खुद ही #पतवार बनती हूँ
बरसों #गुम थी न जाने किस #जहां में
इस जहाँ में ही अब #आशियाना बुनती हूँ
हर #मौसम में खुद को #ढाल के देखा
हर #मंजर में खुद को #संभाल के देखा
#मुद्दत से कोई #ख़्वाब भी न आया
#रात #नींद के #आगोश में जाकर भी देखा
#आईना देखा तो #नक़ाब रुख़ का देखा
सादे से मन पर #फरेब का #परत भी देखा
अब न होता खुद से #जवाब #तलब कोई
मोम से पत्थर बन कर #जवाब ढूंढ़ती हूँ
©अनामिका
मन को छूते भाव लिए
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
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