अक्तूबर 07, 2012

तन्हाँ सफर


गुज़र गए है दिन इस कदर   तन्हाँ 
साथी न कोई-बस मैं और ये जहां 

हिसाब रखा नहीं उन तन्हाँ पलों का 
तन्हाँ सफ़र को गुज़ारा है तन्हाँ 

सूने कमरे सूनी दीवारों ने सुनी 
मेरी वो दास्ताँ जो मैंने अकेले में बुनी 

एक हसीं हमसफ़र के साथ का  सफरनामा-
सुनाना था ज़िन्दगी को ...पर ज़िन्दगी से ठनी 

रब के किस साजिश के तहत मैं तन्हाँ इस कदर 
रिश्तों से महरूम खाया ठोकर दर-बदर 


12 टिप्‍पणियां:

  1. रब के किस साजिश के तहत मैं तन्हाँ इस कदर
    रिश्तों से महरूम खाया ठोकर दर-बदर
    बहुत बढिया।

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  2. शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन.
    बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी.बेह्तरीन अभिव्यक्ति!शुभकामनायें.
    आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  3. तन्हाई के इस सफर को लाजवाब शब्दों में बाँधा है आपने ...

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