नवंबर 04, 2011

कोयल की कूक


गूंजे कोयल की कूक से
जंगल में मीठी तान
पवन चले मंद मंद
गाये दादुर गान ,


आम्र मंजरी के महक से
महके वन-वनांतर
पथिक का प्यास बुझाए
नदी बहे देश-देशांतर


पक्षियों के कलरव से
गूंजे धरती आसमान
पुष्प-पुष्प सुगंध से
महकाए ये जहान


बेशक ये बयार भी
हृदयों को मिलाये
पत्तों के झुरमुट से
चाँद भी झिलमिलाये 

17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही खूबसूरत कविता।

    सादर

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  2. कोयल की कूक जैसी ही बहुत मधुर एवं सुन्दर रचना !

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  3. आपका ब्लॉग भी बहुत ख़ूबसूरत और आकर्षक लगा । अभिव्यक्ति भी मन को छू गई । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद . ।

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  4. गूंजे कोयल की कूक से
    जंगल में मीठी तान
    पवन चले मंद मंद
    गाये दादुर गान ,sundar rachna....

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  5. sundar prastuti...

    ***punam***
    bas yun...hi...
    tumhare liye...

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  6. दिनांक 13/01/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    ऎसा क्यूँ हो जाता है......हलचल का रविवारीय विशेषांक.....रचनाकार...समीर लाल 'समीर' जी

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