अक्तूबर 29, 2011

मैं जिंदा हूँ

मैं जिंदा हूँ 
अन्याय का खिलाफत मैं कर नहीं पाता
कुशासन-सुशासन  का फर्क समझ नहीं पाता 
प्रदूषित हवा में सांस लेता हूँ 
पर मैं जिंदा हूँ 

सरकारी तंत्र से शोषित हूँ मैं 
बिना सबूत आरोपित हूँ मैं
खुद को  साबित मैं  कर नहीं पाता 
पर मैं जिंदा हूँ 

दिल से चीत्कार उठती है 
मन में हाहाकार मचती है 
होंठों से कोई शब्द निकल नहीं पाता 
पर मैं जिंदा हूँ 

रक्त में उबाल अब भी है 
भावनाओं में अंगार अब भी है 
बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता 
पर मैं जिंदा हूँ 

क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से 
काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से 
नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों  का ,
एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता 
पर मैं जिंदा हूँ 

22 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति , बधाई.

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  2. रक्त में उबाल अब भी है
    भावनाओं में अंगार अब भी है
    बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता
    पर मैं जिंदा हूँ
    jo kunthaaon ko janm de raha

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  3. उफ़ आम आदमी की विवशता का सटीक चित्रण किया है।

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  4. हरेक पंक्ति बहुत मर्मस्पर्शी है। कविता अच्छी लगी ।

    संजय भास्कर
    आदत....मुस्कुराने की
    पर आपका स्वागत है
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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  5. मर्मस्पर्शी और भावनात्मक प्रस्तुति

    Gyan Darpan
    RajputsParinay

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  6. इसी विवशता से जब संकल्प जन्मेगा तब जीवन सार्थक होगा!

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  7. आज के परिवेश का सटीक चित्रण...

    ***punam***

    bas yun..hi...
    tumhare liye...

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  8. सुंदर प्रस्‍तुति।
    मन के भीतर के भावों का बेहतरीन चित्रण।

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  9. सुंदर प्रस्‍तुति।
    भावों का बेहतरीन चित्रण।

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  10. इंसान कितना विवश है ... चाहते हुवे भी कुछ कर नहीं पाता इस तंत्र में ... सही लिखा है ...

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  11. बहुत सुंदर शब्दों द्वारा अच्छी अभिव्यक्ति की है. पढकर लगा मेरी ही परिस्थितियों पर लिखी गई है. आप बेशक मेरी स्थिति को मेरे ब्लोगों को पढकर अनुभव किया जा सकता है. बस थोड़ा-सा अंतर है, अपनी लेखनी से जितना हो सकता है. उतना अन्याय का विरोध जरुर कर रहा हूँ.

    मैं जिंदा हूँ

    अन्याय का खिलाफत मैं कर नहीं पाता
    कुशासन-सुशासन का फर्क समझ नहीं पाता
    प्रदूषित हवा में सांस लेता हूँ
    पर मैं जिंदा हूँ
    सरकारी तंत्र से शोषित हूँ मैं
    बिना सबूत आरोपित हूँ मैं
    खुद को साबित मैं कर नहीं पाता
    पर मैं जिंदा हूँ
    दिल से चीत्कार उठती है
    मन में हाहाकार मचती है
    होंठों से कोई शब्द निकल नहीं पाता
    पर मैं जिंदा हूँ
    रक्त में उबाल अब भी है
    भावनाओं में अंगार अब भी है
    बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता
    पर मैं जिंदा हूँ
    क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से
    काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से
    नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,
    एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता
    पर मैं जिंदा हूँ

    जवाब देंहटाएं
  12. रक्त में उबाल अब भी है
    भावनाओं में अंगार अब भी है

    यकीनन यह जिन्दा होने का प्रमाण है

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  13. क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से

    काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से

    नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,

    एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता

    पर मैं जिंदा हूँ ..
    आम आदमी की बेबसी का बयां करती भावपूर्ण अभिव्यक्ति .सादर!!
    श्रीप्रकाश डिमरी

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  14. संदेषपूर्ण व यथार्थपरक कविता ।

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  15. रक्त में उबाल अब भी है
    भावनाओं में अंगार अब भी है
    बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता

    आपकी कविताओं में ओज रस है ....
    जागृत स्वर .....

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  16. मकर संक्रांति की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
    ----------------------------
    आज 15/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  17. BAS THODA HI DOOR HO....MANZIL SE....THODI SI HIMMAT KAR LO....FIR SACHHE MAAYNO ME JINDA RAHOGE.

    SUNDER SATEEK PRASTUTI.

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  18. क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से
    काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से
    नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,
    एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता
    पर मैं जिंदा हूँ
    vah bahut hi sundar kriti shukl ji ....badhai ke sath abhar.

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