मई 12, 2010

चाहे कुछ भी कहे लोग

 ये तप्त- कान्चन सी काया तेरी
ये स्वच्छ  निर्मल सा मन तेरा
अधर- धरा कि ये रहस्य हंसी
तुम ही तुम हो कोई नहीं ऐसा

तुम बस गयी हो मेरे हृदयतल में
मैं रम गया हूँ बस तुम ही तुम में
छोड़ कर न जाना  भुला न देना मुझे
चाहता हूँ स्थित हो जाऊं तुम्हारे अंतर्मन  में

मैं चाहूँ तुम्हे टूटकर कब से
धरती और आकाश मिलते है क्षितिज में जब से
कई विभावरी गयी जागरण से
कहीं तुम आओ और मैं न जाग पाऊँ नींद से

मेरी यह दशा देख तुम न इतराना
मेरी इस हालत पर तुम न रहम खाना
जब तुमको लगे कि मैं हूँ तुम्हारे योग्य
मैं अवश्य आऊँगा चाहे कुछ भी कहे लोग

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें