अगस्त 23, 2016

पिघलते क़तरों में..........



पिघलते क़तरों में जो लम्हा है जीया
उन लम्हों की क़सम मैंने ज़हर है पीया -

कोई वादा नहीं था इक़रार-ए-बयाँ  का
कानों से उतर के वो दिल में बसा था ॥

अश्क़ों से लबालब ये वीरान सी आँखें
ग़म की ख़ुमारी और बोझल सी रातें -

दीदार-ए-यार कभी सुकूँ-ए-दिल था
देके दर्दे इश्क़ तेरे साथ ही चला था ॥

नालिश जो थी तेरे लिए तेरे ही खातिर
बयाँ न हो पाया वो अहसास गुज़र गया -

दरों दीवार जो दो दिलों का था आशियाना
मजार-ए-इश्क़ आज वहीँ पे दफ़न है  ॥ 

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