रेत से घर नहीं बनता पानी में ख्वाव नहीं बहते मन के अन्तर्निहित गहराई किसी पैमाने से नहीं नपते नए कोपलों में दिखता है पौधों की हरियाली की चाहत फूलों से भरी है गुलशन पर कलिओं को खिलने से नहीं राहत देह के नियम है अजीब थकता नहीं है सांस लेने में नींद में बुनते है ख्वाब सारे उम्मीदें टूटती है खुले आँखों से चराचर प्रकृति का नियम यही विरोधाभास सृष्टि का चलन है जो प्रवाह करे शिला खंड-खंड वो प्रवाहिनी नीर जीवन है समय के काल-खंड में जाने कौन सा रहस्य है छुपा कितने ही रंगों और ऋतुओं से धरित्री तुम हो अपरूपा |
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