अप्रैल 22, 2012

कश्ती दरिया में



कश्ती दरिया में इतराए ये समझकर
दरिया तो अपनी है इठलाऊं इधर-उधर

किनारा तो है ही अपना ,ठहरने के लिए
दम ले लूंगा मै भटकूँ राह गर

पर उसे मालूम नही ये कमबख्त दरिया तो
किनारों को डुबो देता है सैलाब में

कश्ती को ये बात कौन बताये जालिम
ना दरिया अपनी न किनारा अपना




8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 23-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-851 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  2. कश्ती को ये बात कौन बताये जालिम
    ना दरिया अपनी न किनारा अपना.

    बहुत सुंदर गज़ल.

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