कश्ती दरिया में इतराए ये समझकर
दरिया तो अपनी है इठलाऊं इधर-उधर
किनारा तो है ही अपना ,ठहरने के लिए
दम ले लूंगा मै भटकूँ राह गर
पर उसे मालूम नही ये कमबख्त दरिया तो
किनारों को डुबो देता है सैलाब में
कश्ती को ये बात कौन बताये जालिम
ना दरिया अपनी न किनारा अपना
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Pyari aur chhoti nazm.
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना!
जवाब देंहटाएंbahut gahri baat....achchi lagi.
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबधाई ।।
बहुत सुन्दर वाह!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 23-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-851 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
सुंदर भाव...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंकश्ती को ये बात कौन बताये जालिम
जवाब देंहटाएंना दरिया अपनी न किनारा अपना.
बहुत सुंदर गज़ल.