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नवंबर 27, 2012

नाराज़ आँखे


नाराज़ आँखे बोलती रही रातभर 
पर आंच न आया तुम पर -
रहे बेखबर !

सूखे पत्ते सी फडफडाती रही यूं ही 
और गीली आँखों ने चाँद -
सुखाया रातभर !

बुझी हुई आँखों से ज़िन्दगी को देखा इस कदर 
चलती हुई ज़िन्दगी को -
पकडती रही बस  रातभर !

काँटों से ख़्वाबों ने आँखों को खूब चुभोया है 
आंसुओं ने सहलाया है पर  -
उनींदे आँखों को रातभर !

शायद ज़िन्दगी की यही चाल है ---पता नहीं 
आंसूं और ख्वाब ने हंगामा -
मचाया है रातभर !

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