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दिसंबर 13, 2010

एक सन्देश मोबाईल से............

ज़िंदा थे तो किसी ने पास भी नही बिठाया 
अब सब पास बैठे जा रहे थे 
पहले किसी ने रुमाल भी नही दिया 
अब कपडे ओढाये जा रहे थे 
सबको पता है अब उनके काम के नही हम 
फिर भी बेचारे दुनियादारी निभाये जा रहे थे 
ज़िंदा थे तो किसी ने कदर नही की 
अब मुझमे घी डाले जा रहे थे 
ज़िंदगी में एक कदम साथ नही चला कोई 
अब फूलो से सजा के कंधे पर ले जा रहे थे 
अब पता चला मौत कितनी बेहतर है ज़िंदगी से 
हम तो यूं ही जिए जा रहे थे 


-----------------अज्ञात 

दिसंबर 09, 2010

ब्लॉग-ए-आम........



 

दिन ढला शाम हुई 
चिड़ियों की कुहक 
वीरान हुई 

दिन ने रात को 
गले लगाया 
सांझ का ये नज़ारा 
आम हुई 

पेड़ों की झुरमुटों से 
चांदनी की छटा
दीदार हुई 

तारों की अधपकी रोशनी 
आसमां की ज़मी पे 
मेहरबान हुई 

ये तो रोज़ का नज़ारा है 
जाने क्यों लिखने को 
बेचैन हुई 

चलो आखिर इस बहाने 
मेरी ये कविता 
ब्लॉग-ए-आम हुई  

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