अकेले चले थे , तन्हां सफ़र था
मुसाफिर मिले जो... राहें जुदा थी
लम्बी सी सड़कें और दिन पिघले-पिघले
तन्हाई के जाने ये आलम कौन सी ?
पेड़ों के कतारों की बीच की पगडण्डी
कब से न जाने खड़ी है अकेली
सुनसान राहें... न क़दमों की आहट
इंतजार है उसको भी न जाने किसकी !!
बस सूखे पत्तों की गिरने की आहट
बारिश की टप-टप चिड़ियों की चहचहाहट
दाखिल हो जाता हूँ अक्सर इस सफ़र में
है झींगुर के शोर औ पत्तों की सरसराहट !!
कब तक मैं समझाऊँ इस तन्हां दिल को
नज्मों से बहलाए - फुसलाये पल को
तन्हाई का साथ छुडाना जो चाहूँ
भीड़ अजनबियों का नहीं भाता है मन को !!
गर कोई बिखरी सी नज़्म मिल जाए
कतरन-ए -ख्वाव पर पैर पड़ जाए
बज़्म-ए-याद से कुछ यादें दरक जाए
तनहा जीने का फिर सबब मिल जाए !!
तन्हाई का साथ छुडाना जो चाहूँ
भीड़ अजनबियों का नहीं भाता है मन को !!
गर कोई बिखरी सी नज़्म मिल जाए
कतरन-ए -ख्वाव पर पैर पड़ जाए
बज़्म-ए-याद से कुछ यादें दरक जाए
तनहा जीने का फिर सबब मिल जाए !!